भाषा मानव जाति के सर्वोत्तम आविष्कारों में से एक है, जिसके बिना हम अपने ज्ञान, विचारों, विचारों, भावनाओं को साझा नहीं कर पाते इसके साथ ही किसी अन्य व्यक्ति के साथ क्रोध, उत्तेजना, घबराहट, भय व्यक्त नहीं कर पाते । यहां हम केवल मौखिक भाषा की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि संचार के माध्यम के रूप में उपयोग की जाने वाली सभी प्रणालियों की बात कर रहे हैं। भाषा ध्वनियों, प्रतीकों और अर्थों का एक बौद्धिक निकाय है जो व्याकरणिक नियमों और संरचना द्वारा नियंत्रित होती है।
भाषा और साहित्य की जब भी बात होती है कई लोग कन्फ्यूज्ड हो जाते हैं। कई तो भाषा और और साहित्य दोनों को एक ही समझ बैठते हैं। भाषा और साहित्य को समझने के लिए पहले हमें समझना होगा कि भाषा क्या है, साहित्य क्या है ? भाषा और साहित्य में क्या अंतर है आदि।
भाषा की परिभाषा
“Literature, a general term which in default of precise definition, may stand for the best expression of the best thought reduced to writing. Its various forms are the result of political circumstances securing the predominance of one social class which is thus enabled to propagate its ideas and sentiments.”
-Encyclopedia Britannica
डॉक्टर श्यामसुंदर दास के अनुसार : मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मत का आदान प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि संकेतों का जो व्यवहार होता है उसे भाषा कहते हैं।
कामताप्रसाद गुरु के अनुसार : भाषा व साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को भलीभांति प्रकट कर सकता है और दूसरे के विचारों को स्पष्टता से समझ सकता है।
प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।
भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। 1950 में भारतीय संविधान की स्थापना के समय में, मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 14 थी।
भाषा के मुख्य तत्व (bhasha ke mukhya tatva)
1. वाक्य
भाषा का प्रमुख कार्य विचार-विनिमय हैं तथा यह कार्य वाक्यों द्वारा संपन्न होता हैं। अतः वाक्य ही भाषा में सर्वाधिक स्वाभाविक तथा महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता हैं।
2. पद
वाक्य का निर्माण पदों से होता हैं, अतः वाक्य के बाद पद-रचना भाषा का अंग हैं।
3. शब्द
रूप अथवा पद का आधार शब्द हैं। अतः भाषा का एक तत्व शब्द भी हैं।
4. ध्वनि
शब्द का आधार ध्वनि हैं। यह भी भाषा का महत्वपूर्ण अंग हैं।
5. अर्थ
भाषा की आत्मा अर्थ हैं। यदि वाक्य, पद, शब्द तथा ध्वनि भाषा के शरीर हैं, तो ‘अर्थ’ भाषा की आत्मा हैं।
साहित्य किसी भी प्रकार की लिखित या बोली जाने वाली सामग्री को दर्शाता है, जिसे एक कला रूप माना जाता है, जिसका भाषा के उपयोग के कारण कुछ बौद्धिक मूल्य होता है, जो इसके सामान्य उपयोग से अलग होता है। साहित्य कोई भी ऐसा काम हो सकता है जो कलात्मक हो, एक स्पष्ट कल्पना के साथ विकसित हो और जो किसी क्षेत्र की संस्कृति, भाषा, प्राचीन समय या मानव समाज के व्यवहार पैटर्न को दर्शाता हो। यह समाज के आधुनिकीकरण का सूचक है। यह पाठक को एक पूरी तरह से नई दुनिया से परिचित कराता है या किसी परिचित चीज को एक अलग कोण या दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है।
“सहितस्य भावः साहित्यम” जिसमे सहित का भाव है उसे साहित्य कहते हैं। “सहित” शब्दों से साहित्य की उत्पत्ति है अतएव, धातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टिगोचर होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है।
भाषा के माध्यम से अपने अंतरंग की अनुभूति, अभिव्यक्ति कराने वाली ललित कला ‘काव्य’ अथवा ‘साहित्य’ कहलाती है। (ललित कला अथवा अँग्रेजी का Fine Art शब्द उस कला के लिए प्रयुक्त होता है, जिसका आधार सौंदर्य या सुकुमारता है। शब्द और अर्थ का सहभाव ही साहित्य है। कुछ विद्वानों के अनुसार हितकारक रचना का नाम साहित्य है।
संस्कृत में एक शब्द है वांड्मय। भाषा के माध्यम से जो कुछ भी कहा गया, वह वांड्मय है। साहित्य एक ऐसा शब्द है जिसे लिखित और कभी-कभी बोली जाने वाली सामग्री के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। एक विषय के रूप में, इसे केवल लिखित कार्य के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पूरे इतिहास में साहित्य की व्याख्या के लिए विभिन्न परिभाषाओं का उपयोग किया गया है । कभी-कभी साहित्य को उच्च और स्थायी कलात्मक मूल्य वाले कलात्मक कार्यों के रूप में परिभाषित किया जाता है।
साहित्य के संदर्भ में संस्कृत की इस परिभाषा में मर्म है – शब्दार्थो सहितौ काव्यम। यहाँ शब्द और अर्थ के साथ भाव की आवश्यकता मानी गयी है। इसी परिभाषा को व्यापक करते हुए संस्कृत के ही एक आचार्य विश्वनाथ महापात्र नें “साहित्य दर्पण” नामक ग्रंथ लिख कर “साहित्य” शब्द को व्यवहार में प्रचलित किया। संस्कृत के ही एक आचार्य कुंतक व्याख्या करते हैं कि जब शब्द और अर्थ के बीच सुन्दरता के लिये स्पर्धा या होड लगी हो, तो साहित्य की सृष्टि होती है। केवल संस्कृतनिष्ठ या क्लिष्ट लिखना ही साहित्य नहीं है न ही अनर्थक तुकबंदी साहित्य कही जा सकेगी। वह भावविहीन रचना जो छंद और मीटर के अनुमापों में शतप्रतिशत सही भी बैठती हो, वैसी ही कांतिहीन हैं जैसे अपरान्ह में जुगनू। अर्थात, भाव किसी सृजन को वह गहरायी प्रदान करते हैं जो किसी रचना को साहित्य की परिधि में लाता है।
संक्षेप में “साहित्य” – शब्द, अर्थ और भावनाओं की वह त्रिवेणी है जो जनहित की धारा के साथ उच्चादर्शों की दिशा में प्रवाहित है।
Ref:
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https://www.sahityashilpi.com/2008/09/blog-post_3518.html
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